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बिहार चुनाव में विकास बनाम ‘घुसपैठिया’ नारों की जंग"

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मोहम्मदआलम 

बिहार विधानसभा चुनाव नजदीक आते ही सियासत ने नया मोड़ ले लिया है। एनडीए के भीतर ही सुर अलग-अलग सुनाई देने लगे हैं। बीजेपी जहां पूरे जोर-शोर से ‘घुसपैठिया’ और जनसांख्यिकीय संकट का नैरेटिव गढ़ रही है, वहीं उसका सबसे बड़ा सहयोगी जेडीयू इस मुद्दे से साफ दूरी बना रहा है। सवाल यह है कि चुनाव में मतदाता विकास सुनेगा या घुसपैठ का शोर?प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक मंच से यह संदेश दे रहे हैं कि बिहार और देश से हर घुसपैठिए को बाहर निकालना उनकी प्राथमिकता है। सीमांचल के मुस्लिम बहुल जिलों—अररिया, पूर्णिया, कटिहार और किशनगंज—को टारगेट करते हुए बीजेपी विपक्ष को ‘घुसपैठियों का संरक्षक’ बता रही है। लेकिन जेडीयू का मानना है कि इस तरह के ध्रुवीकरण से बिहार की राजनीति नहीं चलेगी। जेडीयू नेताओं के मुताबिक उनकी असली ताकत विकास का एजेंडा और आरजेडी-कांग्रेस के कुप्रशासन के खिलाफ उपलब्धियों की गिनती है।यहां बड़ा विरोधाभास सामने आता है। जब एनडीए के सहयोगी ही बीजेपी के चुनावी एजेंडे से सहमत नहीं हैं, तो गठबंधन की एकजुटता पर सवाल उठना लाजिमी है। लोजपा (रामविलास) भी अब तक चुप है, यानी वह इंतजार कर रही है कि हवा किस तरफ बहती है।विपक्ष ने भी बीजेपी पर पलटवार तेज कर दिया है। आरजेडी और कांग्रेस दोनों का आरोप है कि बीजेपी 20 साल की नाकामी छुपाने और जनता का ध्यान असली मुद्दों—रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार—से हटाने के लिए ‘घुसपैठिया’ का शोर मचा रही है। कांग्रेस तो आंकड़े तक लेकर सामने आ गई है कि यूपीए सरकार के दौर में हजारों बांग्लादेशी वापस भेजे गए थे, जबकि एनडीए के शासन में यह आंकड़ा नगण्य रहा।राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि ‘घुसपैठिया’ का मुद्दा सीमांचल के इलाकों में जरूर भावनात्मक असर डालेगा, लेकिन पूरे बिहार में इसे लागू करना आसान नहीं। खासकर तब, जब गठबंधन का अहम स्तंभ जेडीयू ही इससे सहमत न हो। यह खटपट अगर बढ़ी, तो चुनाव में एनडीए के लिए बड़ा संकट बन सकती है।

संपादकीय टिप्पणी

बिहार की राजनीति एक बार फिर जाति और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की तरफ धकेली जा रही है। बीजेपी ‘घुसपैठिया’ का नारा देकर अपने कोर वोटरों को साधना चाहती है, लेकिन जेडीयू का इससे किनारा करना इस गठबंधन की असली कमजोरी को उजागर करता है। जनता पूछ रही है—क्या बिहार के चुनाव विकास और सुशासन पर लड़े जाएंगे या फिर भय और भ्रम फैलाने वाले नारों पर? अगर एनडीए इस खाई को भर नहीं पाया, तो यह चुनाव नारा नहीं, गठबंधन के लिए आफत साबित हो सकता है।

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